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December 2016

मंजिल की ओर 

एक तरफ़ अपने हैं,
दूसरी ओर सपने हैं,
उनकी सुनूं या अपनी मानू,
समझ नई आता किसकी मानू,
लेकिन दिल में उठता है एक शोर,
ले चल खुदा मंज़िल की ओर |

अकेला हूँ इस सफ़र पे,
राही न नज़र आता है,
साथ चलने को कहते सब,
साथ न कोई आता है,
ऐसा ही है आज कल का दौर,
ले चल खुदा मंज़िल की ओर |

बदलता रहता है समां,
सुख दुःख तो आएगा,
चलता जायूँगा इस उम्मीद में मैं,
ख़ुशी का सावन आएगा,
दिल नाचेगा तब बन कर मोर,
ले चल खुदा मंज़िल की ओर |

मेहनत करना है कर्म मेरा,
मेहनत करता जाऊँगा,
ठान लिया है मन में मैंने,
मुश्किल से न घबराऊँगा,
लगा दूंगा पूरा अपना मैं ज़ोर,
ले चल खुदा मंज़िल की ओर |

एक ही दी ज़िन्दगी तूने,
सब इसी में करके जाना है,
कौन जाने क्या पता,
फिर इस जहाँ कब आना है,
थमा दी मैंने तुझको अपनी ड़ोर,
ले चल खुदा मंज़िल की ओर |

Rajjat Garg

Manzil Ki Aur

​बचपन

Bachpan

आता है ये सबके पास,
जीवन का समां है ये ख़ास,
चाह कर भी कोई न भूल पाता है,
मुझको भी अपना बचपन याद आता है |

न कोई फ़िक्र था,
न ही कोई परेशानी थी,
रोज़ रात को सोने से पहले,
होती नई कहानी थी |

स्कूल न जाने के हम,
लाख बहाने बनाते थे,
अंग्रेजी और हिसाब की जेल में,
अपराधी से फस जाते थे |

बोझ उतार स्कूल के काम का,
इंतज़ार रहता था शाम का,
दोस्तों संग मज़ा लेते थे खेल का,
याद आता डिब्बा पोषण पा की रेल का |

बड़ी गलती भी तब मेरी,
नादानी में छिप जाती थी,
बिन मांगे मिलती चीजें जब,
मुझको ख़ुशी दे जाती थी |

मीठी यादें बचपन की,
जब ज़ेहन में आ जाती हैं,
उदास भरी इस ज़िन्दगी में,
कुछ पल ख़ुशी के दे जाती हैं |

Rajjat Garg

याद कर के जिनको,
आँख में पानी भर जाता है,
चेहरा जब नन्हे साहिबजादों का,
सामने मेरे आता है ।

दादी माँ से इनका था,
बड़ा असीम प्यार,
अच्छे से किया पालन पोषण,
दी अच्छी शिक्षा और संस्कार |

आई फिर एक काली रात,
कुदरत ने किया तीखा वार,
सरसा और मुगलों के आक्रमण से,
बिछड़ गया गुरु गोबिंद परिवार |

गंगू ने दी पनाह फिर अपने घर में,
कुछ दिन बाद उसमें लालच आया,
दे खबर माता और बच्चों की,
इम्मान अपना वो बेच आया |

जाकर फिर मुग़ल सैनिकों ने,
लिया ऊनको बंधी बना,
जान कर नादान इन बच्चों को,
भरी सभा में लिया बुला |

कहा कबूलो सिर झुका कर इस्लाम,
कहा बच्चों ने मर जायेंगे न कबूलेंगे इस्लाम,
ये जान वज़ीर ने किया फतबा जारी,
इनको नींव में चीनने की तैयारी ।

जो भी हुआ बच्चों ने जा,
दादी माँ को सब बतलाया,
लाख कोशिश की ज़ालिम ने,
लेकिन धर्म को दाग न लगाया |

आखिरी रात ये आज की जान,
दादी ने बच्चों को किया प्यार,
तेरे ही तुझको सौंप रही,
लगाकर कहा सतगुर को पुकार |

सजाकर सुबह दोनों को,
दादी ने उन्हें फिर विदा किया,
ज़ालिम के फिर किया हुकुम,
दो नन्हीं जानों को नींव में चिनवा दिया |

सूबा-ए-सरहिंद का कहर,
न ढोह सकी ये दीवार,
फिर भी न झुका सर जब,
चलवा दी उन पर कटार |

इतिहास के इस पंने को,
नहीं भूल सकता इंसान,
इन पवित्र रूहों को,
मेरा सिर झुकाकर प्रणाम |

Rajjat Garg

dastan
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